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तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-72 असुरक्षा में जीना बुद्धत्व का मार्ग है। भाग-I - Printable Version

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तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-72 असुरक्षा में जीना बुद्धत्व का मार्ग है। भाग-I - Osho Prem - 03-02-2019

तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-72

असुरक्षा में जीना बुद्धत्व का मार्ग है-

प्रश्नसार-
1-कृपया बुद्ध के प्रेम को समझाएं।
2-क्या प्रेम गहरा होकर विवाह नहीं बन सकता?
3-क्या व्यक्ति असुरक्षा में जीते हुए निशिंचत रह सकता है? 
4-अतिक्रमण की क्या अवश्यकता है? 
पहला प्रश्न : 
 आपने कहा कि प्रेम केवल मृत्यु के साथ ही संभव है। फिर क्या आप कृपया बुद्ध पुरुष के प्रेम के विषय में समझाएंगे?
व्यक्ति के लिए तो प्रेम सदा घृणा का ही अंग होता है सदा घृणा के साथ ही आता है। अज्ञानी मन के लिए तो प्रेम और घृणा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अज्ञानी मन के लिए प्रेम कभी शुद्ध नहीं होता। और यही प्रेम का विषाद है क्योंकि वह घृणा जो है, विष बन जाती है। तुम किसी से प्रेम करते हो और उसी से घृणा भी करते हो।

लेकिन हो सकता है, तुम घृणा और प्रेम दोनों एक साथ न कर रहे होओ तो तुम्हें कभी इसका पता ही नहीं चलता। जब तुम किसी से प्रेम करते हो तो तुम घृणा वाले हिस्से को भूल जाते हो वह नीचे चला जाता है, अचेतन मन में चला जाता है और वहां प्रतीक्षा करता है। फिर जब तुम्हारा प्रेम थक जाता है तो वह अचेतन में गिर जाता है और घृणा वाला हिस्सा ऊपर आ जाता है।
फिर तुम उसी व्यक्ति से घृणा करने लगते हो। और जब तुम घृणा करते हो तो तुम्हें पता भी नहीं होता कि तुम प्रेम भी करते हो, अब प्रेम गहरे अचेतन में चला गया है। यह चलता रहता है बिलकुल दिन और रात की तरह यह एक वर्तुल में चलता चला जाता है। यही विषाद बन जाता है।


लेकिन एक बुद्ध, एक जाग्रत व्यक्ति के लिए दुई, द्वैत मिट जाते हैं। सब तरफ-न केवल प्रेम के ही संबंध में बल्कि पूरा जीवन एक अद्वैत बन जाता है। फिर कोई दुई नहीं रहती, विरोधाभास नहीं बचता।
तो वास्तव में, बुद्ध के प्रेम को प्रेम कहना ठीक नहीं है, लेकिन हमारे पास और कोई शब्द नहीं है। बुद्ध ने स्वयं कभी प्रेम शब्द का उपयोग नहीं किया। उन्होंने करुणा शब्द का उपयोग किया। लेकिन वह भी कोई बहुत अच्छा शब्द नहीं है। क्योंकि तुम्हारी करुणा सदा तुम्हारी क्रूरता के साथ संबंधित है, तुम्हारी अहिंसा सदा तुम्हारी हिंसा के साथ संबंधित है। तुम कुछ भी करो उसका विपरीत सदा ही साथ होगा। तुम विरोधाभासों में जीते हो; इसीलिए तनाव, दुख और संताप होते हैं।
तुम एक नहीं हो, तुम हमेशा बंटे हुए हो। तुम बहुत से खंडों में बंटी हुई एक भीड़ हो। और वे सब खंड एक-दूसरे का विरोध कर रहे हैं। तुम्हारा होना एक तनाव है; बुद्ध का होना एक गहन विश्राम है। स्मरण रखो, तनाव दो विरोधी ध्रुवों के बीच में होता है, और विश्राम होता है ठीक मध्य में, जहां दो विरोधी ध्रुव विरोधी नहीं रहते। वे एक-दूसरे को काट देते हैं, और एक रूपांतरण घटित होता है।
तो बुद्ध का प्रेम उससे मूलत: भिन्न होता है, जिसे तुम प्रेम जानते हो। तुम्हारा प्रेम तो एक बेचैनी है; बुद्ध का प्रेम है पूर्ण विश्राम 1 उसमें मस्तिष्क का कोई भाग नहीं होता, इसलिए उसका गुणधर्म पूर्ण्त: बदल जाता है। बुद्ध के प्रेम में ऐसा बहुत कुछ होगा जो साधारण प्रेम में नहीं होता।
पहली बात तो यह कि वह ऊष्ण नहीं होगा। ऊष्णता आती है घृणा से। बुद्ध का प्रेम वासना नहीं, करुणा होता है; ऊष्ण नहीं, शीतल होता है। हमारे लिए तो शीतल प्रेम का अर्थ होता है कि इसमें कुछ कमी है। बुद्ध का प्रेम शीतल होता है, उसमें कोई ऊष्णता नहीं होती 1 वह सूर्य की तरह नहीं होता, चांद की तरह होता है। वह तुम में उत्तेजना नहीं लाता, वरन एक गहन शीतलता निर्मित करता है।
दूसरे, बुद्ध का प्रेम वास्तव में कोई संबंध नहीं होता, तुम्हारा प्रेम एक संबंध होता है। बुद्ध का प्रेम तो उनके होने की अवस्था ही है। असल में वह तुम्हें प्रेम नहीं करते वह प्रेम ही हैं। यह भेद स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए। यदि तुम किसी व्यक्ति को प्रेम करते हो तो तुम्हारा प्रेम एक कृत्य होता है, तुम कुछ करते हो, कोई निश्चित व्यवहार करते हो, कोई संबंध कोई सेतु निर्मित करते हो। बुद्ध का प्रेम तो बस उनका होना ही है, बस ऐसे ही वह हैं। वह तुम्हें प्रेम नहीं कर रहे, वह प्रेम ही हैं। वह तो बगीचे में खिले फूल की तरह हैं। तुम उधर से गुजरी, और सुगंध तुम तक पहुंच जाती है। ऐसा नहीं है कि फूल विशेष रूप से तुम तक सुगंध पहुंचा रहा है; जब कोई नहीं भी गुजर रहा था, तब भी वहां सुगंध थी। और यदि कभी भी कोई नहीं गुजरे, तब भी सुगंध रहेगी।
जब तुम्हारा प्रेमी तुम्हारे साथ नहीं होता, तुम्हारी प्रेमिका तुम्हारे साथ नहीं होती, प्रेम विदा हो जाता है, सुवास नहीं रहती। यह प्रेम तुम्हारा प्रयास है, तुम्हारा होना मात्र नहीं है। इसे लाने के लिए तुम्हें कुछ करना पड़ता है। जब कोई भी नहीं है और बुद्ध अकेले अपने बोधिवृक्ष के नीचे बैठे हैं तो भी वह प्रेम में होते हैं। अब यह जरा अजीब लगता है कि तब भी वह प्रेम में होते हैं। वहां कोई भी नहीं है जिसे प्रेम किया जाए लेकिन फिर भी वह प्रेम में हैं। यह प्रेमपूर्ण होना उनकी अवस्था है। और क्योंकि यह उनकी अवस्था है, इसलिए उसमें तनाव नहीं होता। बुद्ध अपने प्रेम से थक नहीं सकते।
तुम थक जाओगे, क्योंकि तुम्हारा प्रेम ऐसा है जिसे तुम कर रहे हो। तो यदि बहुत प्रेम होता है तो प्रेमी एक-दूसरे से थक जाते हैं। वे थक जाते हैं, और दोबारा ऊर्जा से भरने के लिए उन्हें अवकाश की, अंतराल की जरूरत पड़ती है। यदि तुम चौबीस घंटे अपने प्रेमी के साथ रहो तो वह ऊब जाएगा, क्योंकि इतना ध्यान देना बहुत अधिक हो जाएगा। कुछ भी चौबीसों घंटे करते रहना अति हो जाती है।
बुद्ध कुछ कर नहीं रहे, वह अपने प्रेम से थकते नहीं हैं। यह तो उनका होना ही है, यह तो ऐसे ही है जैसे वह श्वास ले रहे हों। जैसे तुम श्वास लेने से कभी थकते नहीं, अपने होने से कभी थकते नहीं, ऐसे ही वह भी कभी अपने प्रेम से थकते नहीं।
और तीसरी बात यह है कि तुम्हें पता चलता है कि तुम प्रेम कर रहे हो, बुद्ध बिलकुल पता नहीं होता। क्योंकि पता चलने के लिए विपरीत की आवश्यकता होती है। तो प्रेम से इतने भरे हैं कि उन्हें पता ही न चलेगा। यदि तुम उनसे पूछो तो वह कहेंगे, 'मैं तुमसे प्रेम करता है।' लेकिन इसका उन्हें पता नहीं होगा। प्रेम इतना चुपचाप उनसे बह रहा है, उनका इतना अंतरंग हिस्सा बन गया है, कि उन्हें इसका पता हो ही नहीं सकता।
तुम्हें पता चलेगा कि वह प्रेम करते हैं, और यदि तुम खुले तथा ग्रहणशील हो तो तुम्हें अधिक पता चलेगा कि वह तुम्हें और भी प्रेम करते हैं। तो यह तुम्हारी क्षमता पर निर्भर करता है कि तुम कितना ग्रहण कर सकते हो। लेकिन उनकी तरफ से यह कोई भेंट नहीं है। वह तुम्हें कुछ दे नहीं रहे हैं ऐसे वह हैं ही, यही उनका होना है। जब भी तुम अपने समग्र अस्तित्व के प्रति जागते हो, प्रबुद्ध होते हो मुक्त होते हो, तो तुम्हारे जीवन से विरोधाभास मिट जाता है। फिर कोई द्वैत नहीं रहता। फिर जीवन एक लयबद्धता बन जाता है कुछ भी किसी भी चीज के विरुद्ध नहीं होता।
इस लयबद्धता के कारण एक गहन शांति घटित होती है, कोई अशांति नहीं रहती। अशांति बाहर पैदा नहीं होती, तुम्हारे भीतर ही होती है। विरोधाभास ही अशांति पैदा करता रहता है, जब कि बहाने तुम बाहर खोज ले सकते हो। उदाहरण के लिए जरा गौर से देखो कि अपने प्रेमी या किसी मित्र, किसी गहन, अंतरंग, निकटस्थ मित्र के साथ होने पर तुम्हें क्या होता है। उसके साथ रहो और बस देखो कि तुम्हें क्या हो रहा है। जब तुम मिलते हो तो तुम बहुत उत्साहित, आनंदित और नृत्यपूर्ण होते हो। लेकिन कितना नृत्य तुम कर सकते हो? और कितने आनंदित तुम हो सकते हो?
कुछ ही मिनटों में तुम नीचे उतरने लगते हो, उत्साह चला जाता है। और कुछ घंटों बाद तो तुम ऊब जाते हो तुम कहीं और भाग जाने की सोचने लगते हो। और कुछ दिनों बाद तो तुम लड़ने लगोगे। जरा गौर से देखो कि क्या हो रहा है। यह सब भीतर से आ रहा है लेकिन तुम बाहर बहाने खोज लोगे। तुम कहोगे कि यह व्यक्ति अब उतना प्रेमपूर्ण नहीं रहा जितना कि जब यह आया था, तब था; अब यह व्यक्ति मुझे अशांत कर रहा है मुझे क्रोधित
कर रहा है। और तुम हमेशा ही कोई बहाना खोज लोगे कि वह तुम्हें कुछ कर रहा है, तुम्हें
कभी भी पता न चलेगा कि तुम्हारा विरोधाभास, तुम्हारे मन का द्वैत या अंतर्द्वंद्व कुछ कर रहा
है। हमें कभी भी हमारे अपने मन के कृत्यों का पता नहीं चल पाता।
मैंने सुना है कि एक बहुत प्रसिद्ध, सुंदर, हालीवुड अभिनेत्री एक स्ट्रडयो में अपना फोटो लेने गई। फोटो एक दिन पहले खींचा गया था। फोटोग्राफर ने फोटो उसे दिया, पर वह तो बहुत नाराज हो गई, तमतमा गई। उसने कहा, 'यह तुमने क्या कर डाला है? पहले भी तुमने मेरे फोटो लिए हैं, पर वे सब कितने गजब के थे !' फोटोग्राफर ने अभिनेत्री को कहा, 'ही, लेकिन आप यह भूल रही हैं कि जब मैंने वे फोटो खींचे थे तो मैं बारह वर्ष छोटा था। मैं तब बारह वर्ष छोटा था, यह आप भूल रही हैं।’
हम भीतर कभी नहीं देखते कि क्या हो रहा है। यदि फोटो तुम्हें ठीक नहीं लग रहा हो तो फोटोग्राफर में कुछ गड़बड़ है। यह नहीं कि बारह वर्ष बीत चुके हैं और अब तुम बड़ी हो गई हो। यह तो एक आंतरिक प्रक्रिया है, फोटोग्राफर का इससे कुछ भी लेना-देना नहीं है। लेकिन फोटोग्राफर बड़ा बुद्धिमान रहा होगा! उसने कहा, 'आप भूल रही हैं कि मैं तब बारह वर्ष छोटा था।’
बुद्ध का प्रेम बिलकुल भिन्न है, लेकिन उसके -लिए हमारे पास कोई और शब्द नहीं है। सबसे अच्छा शब्द जो हमारे पास है, वह प्रेम ही है। लेकिन यदि तुम यह स्मरण रख सकी तो उसका गुणधर्म बिलकुल बदल जाता है।
और एक बात गौठ बांध लो इस पर गहन विचार करो : यदि बुद्ध तुम्हारे प्रेमी हों तो क्या तुम संतुष्ट ही जाओगे? तुम संतुष्ट नहीं होओगे। क्योंकि तुम्हें लगेगा कि यह प्रेम तो शीतल है इसमें कोई उत्तेजना नहीं है। तुम्हें लगेगा कि वह तुम्हें ऐसे ही प्रेम करते हैं जैसे वह सबको करते है तुम कोई विशेष नहीं हो। तुम्हें लगेगा कि उनका प्रेम कोई भेंट नहीं है वह तो ऐसे है ही इसीलिए प्रेम कर रहे हैं। तुम्हें उनका प्रेम इतना स्वाभाविक लगेगा कि तुम उससे संतुष्ट नहीं होओगे।
भीतर विचार करो। जो प्रेम घृणा-रहित है उससे तुम कभी भी तृप्त नहीं हो सकते। और उस प्रेम से भी तुम कभी तृप्त नहीं हो सकते जिसमें घृणा हो। यही समस्या है। किसी भी तरह तुम अतृप्त ही रहोगे। यदि प्रेम घृणा के साथ है तो तुम अतृप्त रहोगे, सदा रुग्ण रहोगे, क्योंकि वह घृणा का अंश तुम्हें अशांत करेगा। यदि प्रेम घृणा-रहित है तो तुम्हें लगेगा कि यह शीतल है। और बुद्ध को यह इतने स्वाभाविक रूप से घटित हो रहा है कि तुम न भी होते तो भी होता तो यह कोई विशेष रूप से तुम्हारे लिए नहीं है। इसलिए तुम्हारा अहंकार तृप्त नहीं होता। और मुझे ऐसा लगता है कि यदि तुम्हारे सामने किसी बुद्ध और अबुद्ध में से अपना प्रेमी चुनने का सवाल हो तो तुम अबुद्ध को चुनोगे क्योंकि उसकी भाषा तुम समझ सकते हो। अबुद्ध कम से कम तुम्हारे जैसा तो है। तुम लड़ोगे-झगडोगे, सब अस्तव्यस्त हो जाएगा, सब गड़बड़ हो जाएगा, लेकिन फिर भी तुम अबुद्ध को ही चुनोगें। क्योंकि बुद्ध इतने ऊंचे होंगे कि जब तक तुम भी ऊंचे न उठो तुम नहीं समझ पाओगे कि बुद्ध कैसे प्रेम करते हैं।
एक अबुद्ध के साथ, एक अज्ञानी के साथ, तुम्हें स्वयं को रूपांतरित करने की जरूरत नहीं होती। तुम वैसे के वैसे ही बने रह सकते हो। वह प्रेम कोई चुनौती नहीं है। वास्तव में प्रेमियों के साथ बिलकुल विपरीत ही होता है। जब दो प्रेमी मिलते हैं और प्रेम में पड़ते हैं तो वे दोनों एक-दूसरे को विश्वास दिलाने की कोशिश करते हैं कि वे बहुत महान हैं। जो भी सर्वोत्तम गुण हैं उन्हें वे बाहर लाते हैं। ऐसा लगता है कि वे शिखर पर हैं। लेकिन इसमें बहुत प्रयास करना पड़ता है! इस शिखर पर तुम टिके नहीं रह सकते। तो जब तुम थोड़े व्यवस्थित होने लगते हो तो धरती पर वापस लौट आते हो।
तो प्रेमी सदा एक-दूसरे से असंतुष्ट रहते हैं क्योंकि उन्होंने सोचा था कि दूसरा तो बस दिव्य है और जब वे कुछ परिचित होते हैं, थोड़ा समय साथ होते हैं, तो सब कुछ धूमिल हो जाता है, साधारण हो जाता है। तो उन्हें लगता है कि दूसरा धोखा दे रहा था।
नहीं, वह धोखा नहीं दे रहा था, वह तो सर्वोत्तम रंगों में स्वयं को प्रस्तुत कर रहा था। बस इतना ही था। वह किसी को धोखा नहीं दे रहा था, वह जान-बूझकर कुछ भी नहीं कर रहा था। वह तो बस अपने सर्वोत्तम रंगों में स्वयं को प्रस्तुत कर रहा था। और ऐसा ही दूसरे ने भी किया था। लेकिन तुम स्वयं को बहुत देर तक इसी तरह प्रस्तुत नहीं कर सकते, क्योंकि यह बड़ा दुष्कर हो जाता है, कठिन हो जाता है, बोझिल हो जाता है। तो तुम नीचे उतर आते है।
जब दो प्रेमी व्यवस्थित हो जाते हैं, जब वे मानने लगते हैं कि दूसरा तो उपलब्ध ही है तब वे बड़े निकृष्ट, बड़े सामान्य, बड़े साधारण दिखाई पड़ने लगते हैं। जैसे वे पहले दिखाई पड़ते थे उसके बिलकुल विपरीत दिखाई पड़ने लगते हैं। उस समय तो वे फरिश्ते थे; अब तो बस शैतान के शिष्य नजर आते हैं। तुम नीचे गिर जाते हो तुम अपने सामान्य तल पर लौट आते हो।
साधारण प्रेम कोई चुनौती नहीं है लेकिन किसी बुद्ध पुरुष के प्रेम में पड़ जाना बड़ी दुर्लभ घटना है। केवल बहुत सौभाग्यशाली ही ऐसे प्रेम में पड़ते हैं। यह बड़ी दुर्लभ घटना है। ऐसा तो केवल तभी होता है जब तुम जन्मों-जन्मों से किसी बुद्ध पुरुष की खोज करते रहे होओ। यदि ऐसा हुआ हो, केवल तभी तुम बुद्ध पुरुष के प्रेम में पड़ते हो। एक बुद्ध पुरुष के प्रेम में पड़ना स्वयं में ही एक महान उपलब्धि है 1 लेकिन फिर एक कठिनाई होती है। कठिनाई यह है कि बुद्ध पुरुष एक चुनौती है। वह तुम्हारे तल पर तो उतर नहीं सकता, ऐसा संभव ही नहीं है, यह असंभव है। तुम्हें ही उसके शिखर पर जाना होगा; तुम्हें यात्रा करनी होगी, तुम्हें रूपांतरित होना होगा।
तो यदि तुम किसी बुद्ध पुरुष के प्रेम में पड़ जाओ तो प्रेम एक साधना बन जाता है। प्रेम साधना बन जाता है महानतम साधना बन जाता है। इसी कारण से जब भी कोई बुद्ध होते हैं, या कोई जीसस, या कोई लाओत्से तो उनके आस-पास बहुत से लोग एक ही जन्म में उन शिखरों पर पहुंच जाते हैं जहां वे कई जन्मों में भी न पहुंच पाते। लेकिन इसका सारा राज इतना है कि वे प्रेम में पड़ सकें। यह अकल्पनीय नहीं है, कल्पनीय है। हो सकता है तुम बुद्ध के समय में रहे होओ तुम जरूर कहीं आस-पास रहे होओगे। बुद्ध शायद तुम्हारे गांव या नगर से गुजरे होंगे। और हो सकता है तुमने उन्हें सुना भी न हो, तुमने उन्हें देखा भी न हो। क्योंकि किसी बुद्ध को सुनने या किसी बुद्ध को देखने या उसके करीब जाने के लिए भी एक प्रेम चाहिए तुम्हारी ओर से एक खोज चाहिए।
जब कोई बुद्ध पुरुष के प्रेम में पड़ता है तो यह बात अर्थपूर्ण होती है बहुत अर्थपूर्ण होती है। लेकिन कठिन होता है मार्ग। बहुत सरल है किसी साधारण व्यक्ति के प्रेम में पड़ जाना, उसमें कोई चुनौती नहीं है। लेकिन बुद्ध पुरुष के साथ चुनौती बड़ी होगी, मार्ग कठिन होगा, क्योंकि तुम्हें ऊपर उठना होगा। और ये सब बातें तुम्हें दिक्कत देंगी। उसका प्रेम शीतल होगा, उसका प्रेम तो लगेगा कि सबके लिए है, उसके प्रेम में घृणा नहीं होगी।
ऐसा मेरा अनुभव रहा है। कई लोग मेरे प्रेम में पड़ जाते हैं, और फिर वे चाल चलने लगते हैं, साधारण चालें। जाने या अनजाने वे ऐसा करते हैं। एक तरह से यह स्वाभाविक भी है। वे मुझसे अपेक्षाएं करने लगते हैं-साधारण सी अपेक्षाएं-और उनका मन द्वैत की भाषा में सोचता है। उदाहरण के लिए, तुम मुझे प्रेम करते हो तो यदि तुम मुझे सुखी कर सको तो तुम सुखी अनुभव करोगे; लेकिन तुम मुझे सुखी नहीं कर सकते मैं तो सुखी हूं ही।
इसलिए यदि तुम मेरे प्रेम में पड़ते हो तो तुम बहुत हताशा अनुभव करोगे, बहुत निराश होओगे, क्योंकि तुम मुझे सुखी नहीं कर सकते और कुछ करने को बचा नहीं। यदि तुम मुझे सुखी न कर सको तो तुम दुखी हो जाओगे और फिर तुम मुझे दुखी करने का प्रयास करोगे! क्योंकि कम से कम यदि तुम उतना भी कर सको तो तुम्हें तृप्ति मिलेगी। तुम मुझे दुखी करने का प्रयास करोगे-अनजाने, तुम जागरूक नहीं हो, तुम्हें इसकी खबर नहीं है। यदि तुम्हें पता हो तो तुम ऐसा नहीं करोगे। लेकिन तुम प्रयास करोगे, तुम्हारा अचेतन मन मुझे दुखी करने का प्रयास करेगा।
यदि तुम मुझे दुखी कर सको तो तुम्हें पक्का हो जाएगा कि तुम मुझे सुखी भी कर सकते हो। लेकिन यदि तुम मुझे दुखी न कर सको के तुम बिलकुल निराश हो जाते हो। फिर तुम्हें लगेगा कि तुम मुझसे संबंधित नहीं हो, क्योंकि संबंध का तुम्हारे लिए यही अर्थ है।
साधारण प्रेम तो एक रोग है क्योंकि द्वंद्व चलता रहता है। और बुद्ध पुरुष के प्रेम को समझना कठिन है। उसे बौद्धिक रूप से समझने का कोई उपाय नहीं है। तुम्हें प्रेम में पड़ना होगा। और फिर तुम्हें अपने ही मन के प्रति सजग रहना होगा, क्योंकि वह मन उलझनें खड़ी करता रहेगा।
बुद्ध शान को उपलब्ध हुए फिर वह अपने घर लौटे बारह वर्षों बाद वापस लौटे। उनकी पत्नी जिसे उन्होंने बहुत प्रेम किया था, बहुत क्रोधित थी, बहुत नाराज थी। इन बारह वर्षो में वह प्रतीक्षा ही करती रही थी कि किसी दिन यह व्यक्ति लौटेगा। और उसके मन में बदले की बड़ी भावना थी क्योंकि इस व्यक्ति ने उसके साथ अन्याय किया था, वह उचित नहीं था। एक रात अचानक ही वह गायब हो गया था। कम से कम वह कुछ कह तो सकता था। तब बात न्यायसंगत हो जाती। लेकिन बिना कुछ कहे उसे और अपने छोटे से बच्चे को छोड्‌कर वह गायब हो गया था। बारह वर्ष तक उसने प्रतीक्षा की, और फिर बुद्ध आए। वह आग-बबूला थी पागल हो रही थी।
बुद्ध का सबसे निकट का, निकटस्थ शिष्य था आनंद। आनंद सदा छाया की तरह उनका अनुसरण करता था। जब बुद्ध महल में प्रवेश कर रहे थे तो उन्होंने आनंद से कहा, 'तू मेरे साथ मत आ।’
आनंद ने पूछा कि क्यों? क्योंकि उसके पास तो साधारण मन था, वह संबुद्ध नहीं था। वह तो जब बुद्ध मरे तभी संबुद्ध हुआ। उसने पूछा, 'क्यों? क्या आप अभी भी पति और पत्नी की भाषा में सोच रहे हैं? कि आप अपनी पत्नी से मिलने जा रहे हैं? क्या आप अभी भी पति-पत्नी की भाषा में सोच रहे हैं?' उसे तो धक्का लगा। एक बुद्ध, एक प्रज्ञावान व्यक्ति कैसे कह सकता है कि मेरे साथ मत आ, मैं अपनी पत्नी से मिलने जा रहा हूं?
बुद्ध ने कहा 'यह बात नहीं है। यह देखकर कि मैं किसी के साथ आया हूं वह और भी नाराज हो जाएगी। वह बारह वर्ष से प्रतीक्षा कर रही है। उसे अकेले ही पागल हो लेने दो। वह बड़े प्रतिष्ठित, सुसंस्कृत कुल से है। तो वह तुम्हारे सामने नाराज नहीं होगी, वह कुछ भी प्रकट नहीं करेगी, और बारह वर्ष से वह प्रतीक्षा कर रही है। तो उसे विस्फोट कर लेने दो। मेरे साथ मत आओ। मैं अब उसका पति नहीं हूं लेकिन वह तो अभी भी पत्नी है। मैं बदल गया हूं लेकिन वह नहीं बदली है।’
बुद्ध अकेले ही गए। निश्चित ही वह नाराज थी, वह रोने और चीखने-चिल्लाने लगी और तरह-तरह की बातें कहने लगी। और बुद्ध सुनते रहे। वह बार-बार पूछती, 'यदि तुम मुझे थोड़ा भी प्रेम करते थे तो छोड्‌कर क्यों चले गए? तुम क्यों चले गए? और वह भी मुझे बिना बताए। यदि तुम मुझे थोड़ा भी प्रेम करते थे तो कहो मुझे!' और बुद्ध ने कहा, 'यदि मैं तुझे प्रेम न करता तो मैं वापस क्यों आता?'
लेकिन ये दो अलग बातें हैं, बिलकुल अलग बातें हैं। वह क्या कह रहे हैं उसे सुनने को वह तैयार ही नहीं थी। वह पूछती ही रही, 'तुम मुझे अकेला क्यों छोड्‌कर गए? तुम इतना कह दो कि तुमने मुझे कभी प्रेम नहीं किया तो फिर सब ठीक है।’ और बुद्ध ने कहा, 'मैं तुझे प्रेम करता था, मैं तुझे अभी भी प्रेम करता हूं। इसीलिए तो बारह वर्ष बाद मैं वापस लौटा हूं।’ लेकिन यह प्रेम भिन्न है। वह क्रोधित थी और बुद्ध क्रोधित नहीं थे। यदि वह भी क्रोधित हो जाते, क्योंकि वह रो रही थी और चीख-चिल्ला रही थी तो वह समझ सकती थी। यदि वह भी क्रोधित हो जाते और उसकी पिटाई करते तो वह समझ सकती थी। तो सब कुछ ठीक हो जाता। तो वह पुराने ही व्यक्ति होते। बारह वर्ष पूरी तरह मिट जाते और वे दोबारा प्रेम करने लगते। उसमें कोई कठिनाई न थी। लेकिन वह तो चुपचाप खड़े थे और वह पागल हो रही थी। बस वही पागल हो रही थी, वह तो मुस्कुरा रहे थे। यह जरा ज्यादा था। यह कैसा प्रेम? यह समझना उसके लिए बहुत कठिन रहा होगा।
बुद्ध को ताना देने के लिए उसने अपने बेटे से जो अब बारह वर्ष का था, कहा, 'ये तेरे पिता हैं देख इनकी ओर, भगोड़े की ओर। तू बस एक दिन का था जब ये भाग गए थे। ये तेरे पिता हैं। ये एक भिखारी हैं और इन्होंने तुझे जन्म दिया था। अब अपना उत्तराधिकार मांग। इनके सामने अपने हाथ फैला, ये तेरे पिता है। पूछ इनसे कि तुझे देने के लिए इनके पास क्या है?' वह तो बुद्ध को ताना दे रही थी, वह नाराज थी, स्वभावत:।
और बुद्ध ने आनंद को बुलाया जो बाहर खड़ा था और कहा, 'आनंद, मेरा भिक्षा-पात्र ले आ।’ जब भिक्षा-पात्र बुद्ध को. दिया गया तो वह उन्होंने अपने बेटे राहुल को दे दिया और कहा, 'यही मेरा उत्तराधिकार है मैं तुझे संन्यास में दीक्षित करता हूं।’
यह उनका प्रेम था। लेकिन यशोधरा तो और भी पागल हो गई। उसने कहा, 'यह तुम क्या कर रहे हो? यदि तुम अपने बेटे को प्रेम करते हो तो उसे भिखारी नहीं बनाओगे, संन्यासी नहीं बनाओगे।’ बुद्ध ने कहा, 'मैं उसे इसीलिए भिखारी बना रहा हूं क्योंकि मैं उसे प्रेम करता हूं। मैं जानता हूं कि वास्तविक उत्तराधिकार क्या है और वही मैं उसे दे रहा हूं। मेरे पिता इतने बुद्धिमान नहीं थे, लेकिन मैं जानता हूं कि क्या देने योग्य है और वही मैं दे रहा हूं।’
ये दो अलग-अलग आयाम हैं, दो अलग-अलग भाषाएं हैं जिनका कहीं मिलन नहीं होता। वह प्रेम कर रहे हैं। उन्होंने अपनी पत्नी से जरूर प्रेम किया होगा, इसीलिए वह वापस आए। उन्होंने अपने बेटे को प्रेम किया होगा, इसीलिए उन्होंने उसे दीक्षा दी। लेकिन कोई पिता यह नहीं समझ सकता।
जब बुद्ध के पिता ने इस बारे में सुना-वह बूढ़े थे बीमार थे-वह बाहर दौड़े आए और बोले, 'यह तूने क्या किया? क्या तू मेरे पूरे वंश को नष्ट करने पर तुला है? तू घर से भाग गया, तू मेरा इकलौता बेटा था। अब राहुल पर मेरी आशाएं टिकी हैं, वह तेरा इकलौता बेटा है। और तूने उसे भी संन्यास दे दिया! तो मेरा वंश तो अब समाप्त हो गया। अब भविष्य की कोई संभावना न रही। तू क्या कर रहा है? क्या तू मेरा शत्रु है? 
और बुद्ध ने कहा, 'क्योंकि मैं अपने बेटे को प्रेम करता हूं इसलिए इसे वही दे रहा हूं जो देने योग्य है। न तो आपका राज्य, न आपका वंश और वंश-वृक्ष ही किसी महत्व का है। संसार को इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि यह वंश-वृक्ष आगे बढ़ता है या नहीं। लेकिन यह संन्यास जिसमें मैं राहुल को दीक्षित कर रहा हूं बहुत महत्वपूर्ण है। मैं भी अपने पुत्र को प्रेम करता हूं।’
दो पिता बारत कर रहे हैं! बुद्ध के पिता फिर उनसे प्रार्थना करने लगे 'तू वापस आ जा। मैं तेरा पिता-हूं। मैं आ हूं। मैं नाराज हूं। तूने मुझे निराश किया है। लेकिन फिर भी मेरे पास पिता का हृदय है और मैं तुझे क्षमा कर दूंगा। आ जा, मेरे द्वार खुले हैं। वापस आ जा। छोड़ दे यह संन्यास, वापस आ जा, मेरे द्वार खुले हैं। यह राज्य तेरा है, मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं। मै बहुत बूढ़ा हूं लेकिन मेरे मन में तेरे लिए बहुत प्रेम है और मैं क्षमा कर सकता हूं।’
यह एक प्रेम है। फिर यह दूसरे पिता, गौतम बुद्ध स्वयं हैं, जो संसार छोड़ने के लिए अपने बेटे को संन्यास दे रहे हैं। यह भी प्रेम है।
लेकिन दोनों प्रेम इतने भिन्न हैं कि दोनों को एक ही नाम से, एक ही शब्द से बुलाना ठीक नहीं है। लेकिन हमारे पास कोई दूसरा शब्द नहीं है।